अध्याय १४
अत्यन्त घनी तथा सुन्दर छायावाले और मन एवं नेत्र को आनन्द देनेवाले उस वृक्ष पर बैठे हुए सुन्दर शुक पक्षी को देखा ॥ १३ ॥
जब उस शुक पक्षी पर हमारी दृष्टि गई तब उसने हमारे सम्मुख होकर एक श्लो क पढ़ा ॥ १४ ॥
कि इस पृथिवी पर विद्यमान अतुल सुख को देखकर तूँ तत्त्व (आत्मा) का चिंतन नहीं करता है तो इस संसार के पार कैसे जायेगा? ॥ १५ ॥
स्निग्धच्छायं सुनिबिडं मनोनयननन्दनम् ॥ तत्रापश्यं स्थितं कीरं मनोमोदविधायकम् ॥ १३ ॥
दत्तदृष्टिरहं यावज्जातस्तस्मिन् पतत्रिणि ॥ तावन्मां सम्मुखीभूय श्लोधकमेकं पपाठ ह ॥ १४ ॥
विद्यमानातुलसुखमालोक्यातीव भूतले ॥ न चिन्तयसि तत्त्वं त्वं तत्कथं पारमेष्यति ॥ १५ ॥
इति वाचः शुकेनोक्तां आकर्ण्याहं सुविस्मितः ॥ न तज्जानाम्यहं ब्रह्मन् किमुवाच हरिच्छदः ॥ १६ ॥
इमं मे हार्दसंदेहं भवानुच्छेत्तुमर्हति ॥ मम राज्यसुखं पुत्राश्चत्वारश्चा्रुदर्शनाः ॥ १७ ॥
पत्नीे पतिव्रता रम्या गजाश्वतरथपत्तयः ॥ समृद्धिरतुला ब्रह्मन् केन पुण्येन मेऽधुना ॥ १८ ॥
मैं इस प्रकार शुक पक्षी के वचन को सुनकर विस्मित हो गया, हे ब्रह्मन्! मैं नहीं जानता कि उस शुक पक्षी ने क्या कहा? ॥ १६ ॥
इस हमारे हृदय के सन्देह को आप दूर करने के योग्य हैं। हमारा राज्य-सुख तथा सुन्दर चार पुत्र ॥ १७ ॥
सुन्दर पतिव्रता स्त्री, हाथी, घोड़ा, रथ सेना, हे ब्रह्मन्! ये सब अतुल समृद्धि इस समय हमें किस पुण्य से प्राप्त है? ॥ १८ ॥